डॉ.लाल रत्नाकर
इंजिनियर
जो करता उसमे
कितना मिला
अफसर है
किसके किसके ओ
फिर सेवक
कौन कहता
ख़ुशी में गम नहीं
मिला रहता
जहाँ रुकता
है वह समतल
नहीं होता न
आखिर कहाँ
आया धन इतना
जनता से ही
मूर्तिया गढ़ी
जिसने वह कौन
रचनाकार
पता नहीं क्यों
इस सहन्शाह से
डरते सब
जब की वह
शातिर घोर चोर
लगता ही है
सर्वोच्च सच
से इतना दूर है
लगता उसे
पर चोरों की
जमात जनमत
बटोरती है
कहते वह
अपराधी नहीं है
गुनाहगार
रविवार, 4 अप्रैल 2010
सोमवार, 29 मार्च 2010
कफ़न ओढ़,नफ़रत फैलाता,बनता नेता
डॉ.लाल रत्नाकर
स्वाद ख़राब
तो होना ही था पर
बीमारी नहीं
उसकी आँखें
उतनी कजरारी
तो नहीं होगीं
जितना दम
पहले रहा होगा
अब नहीं है
गुज़ारे दिन
अरमान से पर
खेल नियति
का मेल भला
क्या होगा हाल भला
बदनामी का
जमीर बेचा
इमान खो खो कर
क्या बचा होगा
खुशियाँ भी है
कोई कह रहा था
नीद आती है
बेजान नहीं
मुर्दा भी नहीं पर
जिन्दा भी नहीं
कफ़न ओढ़
नफ़रत फैलाता
बनता नेता
स्वाद ख़राब
तो होना ही था पर
बीमारी नहीं
उसकी आँखें
उतनी कजरारी
तो नहीं होगीं
जितना दम
पहले रहा होगा
अब नहीं है
गुज़ारे दिन
अरमान से पर
खेल नियति
का मेल भला
क्या होगा हाल भला
बदनामी का
जमीर बेचा
इमान खो खो कर
क्या बचा होगा
खुशियाँ भी है
कोई कह रहा था
नीद आती है
बेजान नहीं
मुर्दा भी नहीं पर
जिन्दा भी नहीं
कफ़न ओढ़
नफ़रत फैलाता
बनता नेता
गुरुवार, 25 मार्च 2010
बूढ़े हुए ये,पर स्वाद जवानी,के है इनके |
डॉ.लाल रत्नाकर
अब कहानी
कहने का समय
बीत गया है
समय बचा
तो कहानी गढ़ना
सीख रहा हूँ
जीवन बिता
षडयन्त्रो में ही
उनका नाम
जानकर भी
क्या करोगे भईया
काजल को
चिट्ठियां लिख
पूछ रहा हूँ पर
जवाब नहीं
कहता वह
नहीं दूंगा कर लो
जो करना हो
डंडा कर लो

सब कुछ कर लो
जवाब न दूँ
कहता नहीं
समझते सब है
अपराधी जो
नोट इकठ्ठा
करना मर्म धर्म
ही है उसका
कर लो हल्ला
न्यायालय में और
कहीं कितना
उसके संग
मुखबिर रहता
विविध रंगा
चोर उचक्के
विविध रंग के जो
वह पाला है
लड़ लो कुत्तों
वो जो स्वामिभक्त है
तुम उनसे
वो देख रहे
होने वाला है
चतुर भी है
चुगल खोर भी वो
समझता है
पर इनका
उपयोग यही है
क्या करता मैं
चिल्लाओ खूब

शोर मचा लो पर
ये शातिर है
इनको शर्म
नहीं आती है सर
से ही काले है
करने तो दो
सब करम इन्हें
मनमानी के
बूढ़े हुए ये
पर स्वाद जवानी
के है इनके
मरने दो
घुट घुट इनको
लालच ही में
सोमवार, 15 मार्च 2010
इन्सान वही
डॉ.लाल रत्नाकर
मै तेरे गाल
का काला तिल जैसा
निशान नहीं
तेरी नज़रों
में भला इन्सान हूँ
या नहीं हूँ
ये हरकतें
तुम्हारी हैवान सी
इन्सान नहीं
ज़माने याद
उनको करते है
जो इन्सान है
इन्सान यहाँ
वहाँ भटकते तो
जरूर पर
रुकते वहीं
जहाँ इमान होता
इन्सान वही
बरकत है
नियत है उनकी
ईमानदार
मै तेरे गाल
का काला तिल जैसा
निशान नहीं
तेरी नज़रों
में भला इन्सान हूँ
या नहीं हूँ
ये हरकतें
तुम्हारी हैवान सी
इन्सान नहीं
ज़माने याद
उनको करते है
जो इन्सान है
इन्सान यहाँ
वहाँ भटकते तो
जरूर पर
रुकते वहीं
जहाँ इमान होता
इन्सान वही
बरकत है
नियत है उनकी
ईमानदार
शुक्रवार, 12 मार्च 2010
यूँ ही ठीक हो
उनका नहीं
दोषी वो है जिनकी
मदद की है
सजा देने से
मुजरिम तरपे
सच्चाई नहीं
इन्सान बनो
बेईमान हो तुम
तुम्हारा सच
घबराकर
किसे डराते, खुद
छुप जाते हो
समय कहाँ
सच - सच बोलना
भला होने का
भला बनकर
क्या करोगे तुम तो
यूँ ही ठीक हो
दोषी वो है जिनकी
मदद की है
सजा देने से
मुजरिम तरपे
सच्चाई नहीं
इन्सान बनो
बेईमान हो तुम
तुम्हारा सच
घबराकर
किसे डराते, खुद
छुप जाते हो
समय कहाँ
सच - सच बोलना
भला होने का
भला बनकर
क्या करोगे तुम तो
यूँ ही ठीक हो
बुधवार, 17 फ़रवरी 2010
वे नहीं रहे |
मंगलवार, 26 जनवरी 2010
हाइकु
डॉ.लाल रत्नाकर
ना जो अमर
कभी था, न ही होगा
फिर तड़प ||
यद्यपि सच
वह नहीं होता है
जो दिखाई दे ||
उसको क्या है
जिसकी परछाई
उतनी ही हो ||
मैंने उनसे
इतना ही कहा था
तुम चोर हो ||
पर वह भी
पलट कर कहा
तुम भी वही ||
भरत सुनो
गाली देते शर्माओ
प्राचार्य है ये ||
ना जो अमर
कभी था, न ही होगा
फिर तड़प ||
यद्यपि सच
वह नहीं होता है
जो दिखाई दे ||
उसको क्या है
जिसकी परछाई
उतनी ही हो ||
मैंने उनसे
इतना ही कहा था
तुम चोर हो ||
पर वह भी
पलट कर कहा
तुम भी वही ||
भरत सुनो
गाली देते शर्माओ
प्राचार्य है ये ||
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
हाइकु - डॉ.लाल रत्नाकर
कोहरा छाया
जब शाम हुई थी
मै दिल्ली में था |
सोचा भी नहीं
मुश्किल है चलना
कोहरे में भी |
जब शाम हुई थी
मै दिल्ली में था |
सोचा भी नहीं
मुश्किल है चलना
कोहरे में भी |
गुरुवार, 14 जनवरी 2010
आज हमने तुम्हारे लिए एक सपना बुना |
डॉ.लाल रत्नाकर
आज हमने
तुम्हारे लिए एक
सपना बुना |
सुनोगी रात
सपनों में तुम्हे
जगाता रहा |
उनके घर
जब लूट मची थी
लुटेरे सब |
लुटेरे सब
अपने पहचाने
आते जाते थे |
चोर उचक्के
सब उसके साथ
फिर लुटेरा |
पहचाना था
पर चुप हो गया
शरीक जो था |
अमर गया
बेइज्जत होकर
किसने लुटा |
मुलायम ना
मुलायम नहीं था
कठोर संग |
अब देखना
फिर चमकेगा वो
ओ चला गया |
इनका तो था
इतिहास ही सदा
धोखा ही देना |
कहाँ फंसे थे
जानता है फ़साना
अरे अमर |
तुमको लुटा
उसको भी उसने
तब लूटा था |
चला गया है
क्या कहते वह
नहीं गया है |
दाद हो गया
बरबाद हो गया
आना उसका |
शुक्रवार, 1 जनवरी 2010
नया सवेरा नूतन वर्ष लाया २०१० को .
हाइकु
डॉ.लाल रत्नाकर
नया सवेरा
नूतन वर्ष लाया
२०१० को .
हाल बेहाल
खुशियों से भरा है
नवीन साल .
आप सबको
मुबारक हो नया
ख़ुशी का साल .
डॉ.लाल रत्नाकर
नया सवेरा
नूतन वर्ष लाया
२०१० को .
हाल बेहाल
खुशियों से भरा है
नवीन साल .
आप सबको
मुबारक हो नया
ख़ुशी का साल .
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