ठग ने ठगा
मन ने नहीं माना
मंदिर गए।
ठगे गए हैं
लौट के पता चला
कहां से आए।
उपदेशक !
वह पानी पिए हैं
घाट घाट का ।
मंदिर नहीं
घर चाहिए तुम्हें
अधिकार है।
अन्न दे रहा
उपकार नहीं है
गुलाम बना।
कब जागोगे
आंखों वाले बहरे
सोए गहरे।
डॉ लाल रत्नाकर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें