गुरुवार, 14 जनवरी 2010

आज हमने तुम्हारे लिए एक सपना बुना |




डॉ.लाल रत्नाकर 


आज हमने 
तुम्हारे लिए एक 
सपना बुना |

सुनोगी रात 
सपनों में तुम्हे 
जगाता रहा |

उनके घर 
जब लूट मची थी 
लुटेरे सब |

लुटेरे सब 
अपने पहचाने 
आते जाते थे |

चोर उचक्के 
सब उसके साथ 
फिर लुटेरा |

पहचाना था 
पर चुप हो गया 
शरीक जो था |

अमर गया 
बेइज्जत होकर 
किसने लुटा |

मुलायम ना 
मुलायम नहीं था 
कठोर संग |

अब देखना 
फिर चमकेगा वो 
ओ चला गया |

इनका तो था 
इतिहास ही सदा 
धोखा ही देना |

कहाँ फंसे थे 
जानता है फ़साना 
अरे अमर |

तुमको लुटा 
उसको भी उसने
तब लूटा था |

चला गया है 
क्या कहते वह 
नहीं गया है |

दाद हो गया 
बरबाद हो गया 
आना उसका |  



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