डॉ.लाल रत्नाकर
बहादुर थे
सामने कमजोरों
के झुक रहे
आराम तुम्हे
मिल जायेगा इस
दुःख से आगे
वह माहिर
थे बड़े निठल्लू से
बैठे रहते
जड़ता आती
गरिमा जाती तब
अहंकारी की
ज़माने बढ़
गले लगाते उन्हें
जो आगे आते
नियामक वो
नहीं जाहिल वह
दौलत लूटे
करम एसा
भरम कब तक
पोल खुली है
ओढ़ कर वे
श्वेत चादर तब
न्यायी बनते
जब उनके
इशारों पर चालें
चली जाती थीं
अब उनका
भरम रह गया
न्याय करना
पढ़ाते वह
जिन्हें पढ़ना नहीं
आता सुकर्म
नया कुछ भी
नहीं होता पुराना
झाड़ते हम
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