गुरुवार, 25 मार्च 2010

बूढ़े हुए ये,पर स्वाद जवानी,के है इनके |

















डॉ.लाल रत्नाकर


अब कहानी 
कहने का समय 
बीत गया है 


समय बचा 
तो कहानी गढ़ना 
सीख रहा हूँ 


जीवन बिता 
षडयन्त्रो में ही 
उनका नाम 


जानकर भी 
क्या करोगे भईया 
काजल को 


चिट्ठियां लिख 
पूछ रहा हूँ पर 
जवाब नहीं 


कहता वह 
नहीं दूंगा कर लो 
जो करना हो 


डंडा कर लो 

सब कुछ कर लो  
जवाब न दूँ 


कहता नहीं 
समझते सब है 
अपराधी जो


नोट इकठ्ठा 
करना मर्म धर्म 
ही है उसका 


कर लो हल्ला 
न्यायालय में और 
कहीं कितना 


उसके संग 
मुखबिर रहता 
विविध रंगा


चोर उचक्के 
विविध रंग के जो 
वह पाला है


लड़ लो कुत्तों 
वो जो स्वामिभक्त है 
तुम उनसे 


वो देख रहे 
अवशान उसका 
होने वाला है 


चतुर भी है 
चुगल खोर भी वो 
समझता है                                                           


पर इनका 
उपयोग यही है 
क्या करता मैं 






चिल्लाओ खूब               


शोर मचा लो पर 
ये शातिर है 


इनको शर्म 
नहीं आती है सर 
से ही काले है 


करने तो दो
सब करम इन्हें 
मनमानी के 


बूढ़े हुए ये 
पर स्वाद जवानी 
के है इनके 


मरने दो 
घुट घुट इनको 
लालच ही में 




        

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