सोमवार, 29 मार्च 2010

कफ़न ओढ़,नफ़रत फैलाता,बनता नेता

डॉ.लाल रत्नाकर

स्वाद ख़राब
तो होना ही था पर
बीमारी नहीं

उसकी आँखें
उतनी कजरारी
तो नहीं होगीं

जितना दम
पहले रहा होगा                                                                                                  
अब नहीं है

गुज़ारे दिन
अरमान से पर
खेल नियति

का मेल भला
क्या होगा हाल भला
बदनामी का

जमीर बेचा
इमान खो खो कर
क्या बचा होगा

खुशियाँ भी है
कोई कह रहा था
नीद आती है

बेजान नहीं
मुर्दा भी नहीं पर
जिन्दा भी नहीं

कफ़न ओढ़
नफ़रत फैलाता
बनता नेता

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